कहीं यह हत्याओं का नया दौर तो नहीं?
बिहार एक बार फिर अपराध की आग में झुलसता दिख रहा है। बीते दो-तीन महीनों में जो घटनाएं सामने आई हैं, वो यह सोचने को मजबूर कर देती हैं कि क्या अब हत्या बिहार में सबसे आसान अपराध बन चुका है?
छपरा में अमरेंद्र सिंह हत्याकांड,
पटना में नामी व्यवसायी खेमका की हत्या,
वकीलों पर हमले,
नेताओं को निशाना बनाए जाने की वारदातें,
और यह सब महज राजधानी या जिले तक सीमित नहीं, पूरे बिहार में अपराध का नेटवर्क फैल चुका है।

जिस बिहार पुलिस पर, और ‘सुशासन बाबू’ के प्रशासनिक तंत्र पर कभी हमें गर्व होता था, वही आज अपराधियों के सामने पंगु क्यों नजर आ रहा है?
क्या अब खुफिया तंत्र की धार कुंद हो चुकी है?
प्रशासन जीरो टॉलरेंस की बात तो करता है, लेकिन सवाल ये है कि घटना के बाद गिरफ्तारी से ज़्यादा ज़रूरी क्या घटना को होने से रोकना नहीं है?

आख़िर बिहार में अचानक हत्याओं का ग्राफ क्यों बढ़ गया?
क्या ये कानून व्यवस्था की विफलता है?
क्या यह शासन की थकान या उम्र का असर है?
या फिर समाज में पनप रही धन की भूख, जलन और प्रतिशोध की भावना है जो अब बारूद बनकर फूट रही है?
राहुल गांधी ने हाल ही में कहा कि “क्राइम की राजधानी अब बिहार बन चुका है।”
यह राजनीतिक बयान भले हो, लेकिन आम बिहारी भी अब खुद से सवाल करने लगा है।
लेकिन हम बिहारी जानते हैं—हमारी धरती अपराध की नहीं, इतिहास की निर्माता है।
यह वो धरती है जिसने
सम्राट अशोक को जन्म दिया,
चाणक्य की रणनीति दी,
चंद्रगुप्त की शक्ति दी,
बाबू वीर कुंवर सिंह का बलिदान दिया,
आर्यभट्ट जैसा विज्ञान दिया,
और आज भी हजारों ऐसे युवा हैं जो देश का सबसे मजबूत स्तंभ बनने को तैयार बैठे हैं।