Sun. Oct 12th, 2025
15 अगस्त—आज़ादी का 79वां साल और साथ ही चेहल्लुम का दिन।
तिरंगे की खुशबू और मातम की आवाज़ें, दोनों एक ही हवा में घुली हुईं।
शिया मस्जिद से जुलूस निकला।
भीड़ में काले झंडे, ताजिये, अलम, और पीछे-पीछे मातमी धुनें।
लोग धीमे-धीमे आगे बढ़ते हुए, हाथ में पानी की बोतल, कभी सिर पर ताजिया, कभी बच्चे कंधे पर बैठाए।

इस मौके पर ई-बिहार डिजिटल न्यूज़ के संपादक संजीव मिश्रा से बातचीत में कई मौलाना और काज़िम राजा रिज़वी साहब ने भी अपनी बात रखी।
एक मौलाना ने कहा—
ये मुल्क सोने की चिड़िया है… और इस जैसा अमन और आज़ादी कहीं नहीं।
दूसरे ने जोड़ा—बुराई कभी भी अच्छाई के आगे जीत नहीं सकती।
ये बातें सिर्फ़ बयान नहीं, बल्कि भीड़ के चेहरों पर साफ़ लिखी हुईं थीं।

चेहल्लुम यानी 40वां दिन—कर्बला की उस जंग के 40 दिन बाद का मातम, जहां हुसैन इब्न अली ने अन्याय के खिलाफ खड़े होकर अपनी और अपने परिवार की कुर्बानी दी।
यज़ीद की सत्ता के सामने सर झुकाने से बेहतर उन्होंने प्यास और तलवार का दर्द चुना।
बच्चे पानी के बिना तड़पते रहे, लेकिन सच और इंसाफ की राह से नहीं हटे।
ये जुलूस हर साल उस कुर्बानी को याद दिलाता है—कि इंसानियत और इंसाफ की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।

आज के इस जुलूस में, हिंदू मोहल्ले के लोग रास्ते में खड़े होकर चाय, पानी, बिस्कुट बांट रहे थे।
किसी ने पंखा लेकर हवा दी, किसी ने ठंडा पानी पकड़ा।
ये न कोई सरकारी आदेश था, न कोई बड़ी योजना—
बस मोहल्ले की पुरानी आदत, इंसानियत निभाने की आदत।

जब कैमरा इन पलों को कैद करता है, तो महसूस होता है
हमारा देश सिर्फ संविधान की किताब में नहीं,
बल्कि इन छोटी-छोटी गलियों के बड़े दिलों में बसता है,
जहां आज़ादी और मातम एक ही सड़क पर साथ चलते हैं,
और इंसानियत तिरंगे की तरह सबको एक रंग में रंग देती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *