ये कहानी है अमनौर तारा गाँव की।
कहानी में एक गरीब बाप है।
कहानी में एक मासूम बच्चा है।
और कहानी में है हमारी टूटी–फूटी स्वास्थ्य व्यवस्था।

गाँव अमनौर तारा का एक परिवार, थाना मकेर का रहने वाला। बच्चा बीमार पड़ा, कमजोरी थी। उसे लाया गया अमनौर अस्पताल, चकिया।
अस्पताल ने कहा – “यहाँ सुविधा नहीं है, छपरा ले जाइए।”
छपरा का बड़ा सरकारी अस्पताल। करोड़ों–अरबों का बजट। ऊँची–ऊँची बिल्डिंग। नाम भी बड़ा – स्पेशल न्यूबॉर्न केयर यूनिट।

लेकिन जब गरीब वहाँ पहुँचा, तो जवाब मिला – “सीट खाली नहीं है।”
फिर कहा गया – “पटना ले जाइए या प्राइवेट में भर्ती कराइए।”
अब सोचिए, जो परिवार छपरा तक एंबुलेंस का खर्च जोड़–जोड़कर पहुँचा, वो पटना कैसे जाए? प्राइवेट अस्पताल के लाखों कहाँ से लाए?

बेचारा बाप… मजबूरी में वापस उसी गाँव तारा लौट गया।
पता नहीं बच्चा जिंदा रहा या नहीं।
लेकिन इतना साफ है – हमारी व्यवस्था मर चुकी है।

बिल्डिंग है, बोर्ड है, बजट है…
बस बिस्तर खाली नहीं है।
डॉक्टर है, मशीन है, लेकिन ‘सिस्टम’ नहीं है।

अब सवाल उठता है – हजारों करोड़ खर्च करके भी अगर एक नवजात बच्चे का इलाज न हो पाए,
तो फिर सरकार किसके लिए है?
ये अस्पताल किसके लिए बने हैं?
क्या गरीब होना, हमारी सबसे बड़ी मजबूरी है?”



